Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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रानी ने पत्र ज्यों-का-त्यों संदूक में बंद कर दिया। खुद भी नहीं पढ़ा। कारण, यह नीति-विरुध्द था। तब सोफ़िया से बोली-बेटी, अब मेरी तुमसे एक और याचना है। विनय को एक पत्र लिखो और उसमें स्पष्ट लिख दो, हमारा और तुम्हारा कल्याण इसमें है कि हममें केवल भाई और बहन का सम्बंध रहे। तुम्हारे पत्र से यह प्रकट होना चाहिए कि तुम उनके प्रेम की अपेक्षा उनके जातीय भावों की ज्यादा कद्र करती हो। तुम्हारा यह पत्र मेरे और उनके पिता के हजारों उपदेशों से अधिक प्रभावशाली होगा। मुझे विश्वास है, तुम्हारा पत्र पाते ही उनकी चेष्टाएँ बदल जाएँगी और वह कर्तव्‍य-मार्ग पर सुदृढ़ हो जाएँगे। मैं इस कृपा के लिए जीवन-पर्यंत तुम्हारी आभारी रहँगी।
सोफी ने कातर स्वर में कहा-आपकी आज्ञा पालन करूँगी।
रानी-नहीं, केवल मेरी आज्ञा का पालन करना काफी नहीं है। अगर उससे यह भासित हुआ कि किसी की प्रेरणा से लिखा गया है, तो उसका असर जाता रहेगा।
सोफ़िया-आपको पत्र लिखकर दिखा दूँ?
रानी-नहीं, तुम्हीं भेज देना।
सोफ़िया जब वहाँ से आकर पत्र लिखने बैठी, तो उसे सूझता ही न था कि क्या लिखूँ। सोचने लगी-वह मुझे निर्मम समझेंगे; अगर लिख दूँ, मैंने तुम्हारा पत्र पढ़ा ही नहीं, तो उन्हें कितना दु:ख होगा! कैसे कहूँ कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करती?
वह मेज पर से उठ खड़ी हुई और निश्चय किया, कल लिखूँगी। एक किताब पढ़ने लगी। भोजन का समय हो गया। नौ बज गए। अभी वह मुँह-हाथ धोकर बैठी ही थी कि उसने रानी को द्वार से अंदर की ओर झाँकते देखा। समझी, किसी काम से जा रही होंगी, फिर किताब देखने लगी। पंद्रह मिनट भी न गुजरे थे कि रानी फिर दूसरी तरफ से लौटीं और कमरे में झाँका।

सोफी को उनका यों मँडलाना बहुत नागवार मालूम हुआ। उसने समझा-यह मुझे बिल्कुल काठ की पुतली बनाना चाहती हैं। बस, इनके इशारों पर नाचा करूँ। इतना तो नहीं हो सका कि जब मैंने बंद लिफाफा उनके हाथ में रख दिया, तो मुझे खत पढ़कर सुना देतीं। आखिर मैं लिखूँ क्या? नहीं मालूम, उन्होंने अपने खत में क्या लिखा है? सहसा उसे धयान आया कि कहीं मेरा पत्र उपदेश के रूप में न हो जाए। वह इसे पढ़कर शायद मुझसे चिढ़ जाएँ। अपने प्रेमियों से हम उपदेश और शिक्षा की बातें नहीं, प्रेम और परितोष की बातें सुनना चाहते हैं। बड़ी कुशल हुई, नहीं तो वह मेरा उपदेश-पत्र पढ़कर न जाने दिल में क्या समझते। उन्हें खयाल होता, गिरजा में उपदेश सुनते-सुनते इसकी प्रेम-भावनाएँ निर्जीव हो गई हैं। अगर वह मुझे ऐसा पत्र लिखते, तो मुझे कितना बुरा मालूम होता! आह! मैंने बड़ा धोखा खाया। पहले मैंने समझा था, उनसे केवल आधयात्मिक प्रेम करूँगी। अब विदित हो रहा है कि आधयात्मिक प्रेम या भक्ति केवल धर्म-जगत् ही की वस्तु है। स्त्री -पुरुष में पवित्र प्रेम होना असम्भव है। प्रेम पहले उँगली पकड़कर तुरंत ही पहुँचा पकड़ता है। यह भी जानती हूँ कि यह प्रेम मुझे ज्ञान के ऊँचे आदर्श से गिरा रहा है। हमें जीवन इसलिए प्रदान किया गया है कि सद्विचारों और सत्कार्यों से उसे उन्नत करें और एक दिन अनंत ज्योति में विलीन हो जाएँ। यह भी जानती हूँ कि जीवन नश्वर है, अनित्य है और संसार के सुख अनित्य और नश्वर हैं। यह सब जानते हुए भी पतंग की भाँति दीपक पर गिर रही हूँ। इसीलिए तो कि प्रेम में वह विस्मृति है, जो संयम, ज्ञान और धारणा पर परदा डाल देती है। भक्तजन भी,आधयात्मिक आनंद भोगते रहते हैं, वासनाओं से मुक्त नहीं हो सकते। जिसे कोई बलात् खींचे लिए जाता हो, उससे कहना कि तू मत जा,कितना बड़ा अन्याय है!

पीड़ित प्राणियों के लिए रात एक कठिन तपस्या है। ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी, सोफी की उद्विग्नता बढ़ती जाती थी। आधी रात तक मनोभावों से निरंतर संग्राम करने के बाद अंत को उसने विवश होकर हृदय के द्वार प्रेम-क्रीड़ाओं के लिए उन्मुक्त कर दिए, जैसे किसी रंगशाला का व्यवस्थापक दर्शकों की रेल-पेल से तंग आकर शाला का पट सर्वसाधारण के लिए खोल देता है। बाहर का शोर भीतर के मधुर -स्वर-प्रवाह में बाधक होता है। सोफी ने अपने को प्रेम-कल्पनाओं की गोद में डाल दिया। अबाध रूप से उनका आनंद उठाने लगी:

'क्यों विनय, तुम मेरे लिए क्या-क्या मुसीबतें झेलोगे? अपमान, अनादर, द्वेष, माता-पिता का विरोध, तुम मेरे लिए यह सब विपत्ति सह लोगे? लेकिन धर्म? वह देखो, तुम्हारा मुख उदास हो गया। तुम सब कुछ करोगे; पर धर्म नहीं छोड़ सकते। मेरी भी यही दशा है। मैं तुम्हारे साथ उपवास कर सकती हूँ, तिरस्कार, अपमान, निंदा, सब कुछ भोग सकती हूँ, पर धर्म को कैसे त्याग दूँ? ईसा का दामन कैसे छोड़ दूँ?ईसाइयत की मुझे परवा नहीं, वह केवल स्वार्थों का संघटन है; लेकिन उस पवित्र आत्मा से क्योंकर मुँह मोड़ूँ, जो क्षमा और दया का अवतार थी? क्या यह सम्भव नहीं कि मैं ईसा के दामन से लिपटी रहकर भी अपनी प्रेमाकांक्षाओं को तृप्त करूँ? हिंदू-धर्म की उदार छाया में किसके लिए शरण नहीं? आस्तिक भी हिंदू हैं, नास्तिक भी हिंदू हैं, तैंतीस करोड़ देवताओं को माननेवाला भी हिंदू है। जहाँ महावीर के भक्तों के लिए स्थान है, बुध्ददेव के भक्तों के लिए स्थान है, वहाँ क्या ईसू के भक्त के लिए स्थान नहीं है? तुमने मुझे अपने प्रेम का निमंत्रण दिया है, मैं उसे अस्वीकार क्यों करूँ? मैं भी तुम्हारे साथ सेवा-कार्य में रत हो जाऊँगी, तुम्हारे साथ वनों में विचरूँगी, झोंपड़ी में रहूँगी।'

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